Sunday, April 10, 2011

" उस रात"

उस रात मैं जब घर पंहुचा तो वो फिर मेरे बिस्तर पर थी| मैंने उसे बहुत दिनों से नजरंदाज़ किया, लेकिन आज मैं निर्णय ले चुका था| आखिर कब तक अपने आप को रोककर रखूँ| मैं भी इंसान हूँ और मेरे अन्दर भी एक जानवर है| और आज वो जानवर जागने वाला था| मैंने कई बार उसको भगाया लेकिन वो फिर भी बार बार मेरे बिस्तर पर आ जाती थी|

मैं आगे बढ़ा, बिस्तर के पास पंहुचा| बिस्तर के एक कोने पर बैठकर मैं उसे घूरने लगा| वो ऐसे ही बिस्तर पर निश्चल पड़ी रही| मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ| मेरे बिस्तर पर आने के बावजूद उसके किसी अंग में कोई हरकत नहीं हुई| मैं सोच में पड़ गया| फिर मैंने सोचा कि छोड़ो यार कौन समय व्यर्थ करे| मैं धीरे धीरे उसकी तरफ बढ़ा| मैं धीरे धीरे उसके इतना पास पहुच गया कि मैं उसको अपने हाथो से छू सकता था||


मैंने उसे कभी इतना करीब से नहीं देखा था| आज उसे जब इतना करीब से देखा तो बदन में सिरहन दौड़ गयी| मन में बस यही ख्याल आया कि रोज रोज ये मेरे बिस्तर पर मौजूद थी और मैंने कभी ध्यान क्यों नहीं दिया| अपने आप पर लज्जा आने लगी| अपनी मर्दानगी पर शक होने लगा| ये भी सोचा कि अगर किसी को पता चला तो मेरा मजाक बन जाएगा|

फिर जैसे कुछ हरकत हुई| ऐसा लगा जैसे वो सकुचाई| मैं जैसे जैसे उसके पास पहुचता वो जैसे और सिमट जाती| उसने मुझे देखा | शायद वो मेरे इरादों को भाप चुकी थी | मैं उसकी तरफ तेजी से बढ़ा, लेकिन वो छिटककर बिस्तर के दूसरे कोने में चली गयी| मैंने तो जैसे प्रण कर लिया था कि इसे आज नहीं छोडूंगा| बहुत सताया इसने| आज मैं हिसाब वसूल करके ही रहूँगा|
मेरी सासें भारी होने लगी| मैं धीरे धीरे उसके और करीब पंहुचा और मैंने अपने हाथ उसके तरफ बढ़ाये| मैंने उसे छूना नहीं चाहता था बल्कि दबोच लेना चाहता था| मसल कर रख देना चाहता था| मेरे अन्दर का हैवान पूरे जोश में था| मैं उसकी तरफ लपका, और वो फिर से छिटक कर बिस्तर के दूसरी तरफ चली गयी| मेरा पुरुषत्व आहत हो गया|

अब मैं आर या पार होना चाहता था| और बर्दाश्त नहीं हो रहा था| मेरे बदन की गर्मी और तनाव हद से पार हो चुका था| मैं बहुत तेजी से उसकी ओर लपका| इस बार मैं कामयाब रहा| मैंने उसे अपने हाथों में दबोच लिया था| मेरी साँसे और भी तेज गति से चलने लगी| मेरे बदन की गर्मी जैसे उसे झुलसा देना चाहती थी|

लेकिन इससे पहले कि मैं उसका कुछ कर पाता....................साली................कमीनी...... मेरे हाथो में अपनी पूँछ छोड़ कर भाग गयी......छिपकली की जात ऐसी ही होती है.....इसकी माँ की आँख....

Tuesday, April 5, 2011

Daughter-in-law vs Mother-in-law -1

Couple of years in marriage, and life felt like bullshit. I believed that I am the only sufferer who is going through such pain. The bollywood had such a deep impression on my paradigms that I started considering myself most unfortunate one. Being a mamma's boy made my life even more difficult. The meaning of love for my mom made me more miserable than anything else. In some movie, I saw Mithun da shouting on villain after getting lot of kicks in his butt "Jis maa ki kasam ne mujhe ab tak rok rakha tha, usee maa ki kasam mai tujhe zinda nahee chodunga". Rest was completed by ever lasting impression of song "ye bandhan to pyar ka bandhan hai" from Karan-Arjun.

Few days in marriage. Still in honeymoon hangover. Shit man! these two women don't like each other. I married to a wrong woman, I concluded immediately. Forget about speaking, how can you even think against my mom!!!! I wish I could be blunt to my mom too, but Mithun da stopped me. Anyways, life started settling down and I too learnt fundamental of married life.

Years gone, I recall dialogbaazi and can't stop myself laughing. The expert comments made my life tense at that time, but now, LOL!!! Here I go.

  • Hamare bachche to kabhee itna nahee rote the, pataa nahee ye Harshi mein (My daughter) aadat kahaa se aayee. (Interpretation: Ye roltu aadat maa se aayee hogi)
  • Subodh ne kabhee itna pareshan nahee kiya, ye pataa nahee kispe gayee hai. (Interpretation: My wife's genes are responsible for this)
  • Aajkal ki bahuo se kaam hota kahaa hai. (Sarcasm! Sarcasm! Sarcasm!)
  • Pataa nahee betaa!, teree grahasti kaise chalegee. (Sarcasm with "Atishiyokti Alankar")
  • Mai beewi hoon tumhari, maa nahee. (Clean bowled!)
  • Tumse shaadi tumhari maa se jalee-katee sunane ke liye nahee kee hai.. (Jo ukhadna hai ukhad lo)
Few more observations...
  • Mother is always caring, Saasu is always irritating.
  • I am papa's daughter, you can't be mamma's boy.
  • My dad used to say/do ......

Will come up with more yaadein, soon.... keep visiting...

Wednesday, March 30, 2011

CWC-2011 Semi Final, IND vs PAK: Was it fixed?

India celebrating. Fans on the road. Crackers in the sky. Alcohol in the belly. Sidhdhu laughing like a monster. I am also feeling good but have my own douts when I see from a bookie's eye.

Hell lot of money was bet on two possible outcomes. one, Sachin's century and second India win/loose.

Take the first case. Sachin was allowed to score by dropping his catches. Initial bets were in the favor of Sachin's hundred. Couple of catches dropped. Sachin was not looking in great touch. Most of the people who bet on his century changed side. Bookie made money. Again, Sachin was allowed to cross 80 by repetitively dropping catches. By the time, people started believing that sachin will score century.... oops...he got out. Bookie made money again. :)

Not many were positive for India, when we chocked to 260. Pakistan got a good starts and betting moved in their favor. I still do not understand howcome Misbah kept doing shashtry (remember the Ind-Aus when we lost by 1 run), when asking runrate was jumping.

I feel something is somewhere fishy. If things are fixed, then I believe that India will win the world cup. India wining world cup makes lot of economic sense. Now-a-days, end of the day everything is economics.




Tuesday, March 8, 2011

वो

वो जब रेशमी दुपट्टे से अपने माथे का पसीना पोछती है तो बेचारी पसीने की बूंदों पर तरस आता है जो इस लावान्यमायी रूपसी के स्पर्श-मात्र से वंचित रह जायेंगी!प्रातःकाल में सूर्य की स्वर्णिम किरने जब उसके मुखमंडल पर पड़ती हैं तो एसा लगता हैमानो इस चहरे की अर्चना करने के लिए ही सूर्य रात्रि का वनवास काटकर उदित हुआ है.....

व्याकुलता

कभी-२ कुछ अजीब सा करता हूँ, अजीब सा सोचता हूँ जीवन का अर्थ भी तलाशता हूँ, अपने पैदा होने की वजह भी खोजता हूँ फिर सोचता हूँ कि उसे प्यार क्यो करता हूँ? एसा भी क्या जो तुमसे नफरत करता हूँ? क्यो शामिल हूँ उस दौड़ में, जो ख़त्म होने का नाम नही लेती?

जीवन का उद्देश्य अगर मोक्ष है तो फिर ये जीवन क्यो है? सूरज की किरनों में तपन क्यो है? क्या है, क्यो है ये असीमित व्योम? वो कोयल जो हर दिन मन लुभाती है क्या उसे मोक्ष मिलेगा? वो गोरैया जिसने मेरे छज्जे पर घोसला बना लिया, क्या वो भी मोक्ष की तलाश में है? पीछे घर के आगन में इक फूल फिर से खिला है, क्या उसको मोक्ष का अभिप्राय मालूम है?

फिर ये भी सोचता हूँ कि अगर ये जीवन मिथ्या है तो फिर मेरे हिस्से का सच क्या है? सब कुछ छलावा है तो, मेरी बेटी की किलकारी क्या है? और यदि वो भी अर्थहीन है तो फिर कमबख्त अर्थ का अर्थ क्या है??

एक ख्वाब, जो हकीकत के पन्नों पर अपने निशान छोड़ गया .....

सपने, मैं भी देखता हूँ। स्वप्नों की दुनिया में विचरण करता हूँ तो रोमांचित हो उठता हूँ। मेरे आह्लादित स्वप्न!....संसार के समस्त नयनभिराम आकर्षणों से परिपूर्ण। ये स्वप्न जब यथार्थ से चोटिल हो कर बिखरते हैं, मेरी बेबसी मेरी मुठ्ठियों में दम घोट लेती है।

जिंदगी की किताब के पन्नों को पलटता हूँ, तो कुछ मैले से पेज मिलते हैं। लेकिन, उनकी लिखावट आज भी स्वर्णिम आभा लिए हुए है। शैशव!.......एक मधुर स्मृति। तथाकथित जीवन के कटु सत्यो से अनभिज्ञ। आज भी मैं शैशव की मधुर स्मृतियों से उद्धेलित सा हो जाता हूँ। समुद्रतट पर रेत के घरोंदे बनाया करता था। रेत के घरोंदे.....हाँ मेरी छोटी-सी दुनिया की अतुल्य उपलब्धि। सागर की लहरों का ज्वार अक्सर उन्हें बहा ले जाता था। लेकिन मेरा बालहठ हार ही नहीं मानता था। मैं समझ नहीं पाता था कि सागर मेरे साथ अठखेलिया कर रहा है या अपना आक्रोश प्रर्दशित कर रहा है। रेत में सने हुए पाँव, नन्ही मुठ्ठियों में फिसलती रेत लेकर फिर से जुट जाता था और बालाप्रण एसा कि मैं एक एसा घर बनाऊंगा जिसे ये लहरों का आक्रोश क्या, कोई प्रलय भी जिसकी नींव न हिला सके।

कुछ लक्ष्य निश्चित किए है मैंने। मैंने?......आत्मविश्वास के साथ नही कह सकता। कभी-२ यूँ लगता है जैसे ये किसी दूसरे के लक्ष्यों को पाने की कुटिल चेष्ठा मात्र है। बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी संगीतकार की धुनों पर या किसी गायक के सुर से उत्तेजित होकर जब दर्शक तालिया बजाते हैं, तो आप ख़ुद उन तालियों का केन्द्रबिदु बनना चाहते हैं। लेकिन मै चल पडा, उन तथाकथित लक्ष्यों को पाने के लिए। कर्मठ, सफल, साहसी रणवीर की भाति चला जा रहा हूँ। कभी कमजोर पडा तो बड़े लोगो का मार्गदर्शन लिया, व्यक्तिव सुधरने वाली पुस्तके पडी, वो सब कुछ किया जो लक्ष्यप्राप्ति के लिए जरूरी था। यह सत्य है कि जो चाहा वो पाया। लेकिन फिर ये सोचता हूँ क्या मैंने यही चाहा था? मनुष्य कि ये बड़ी विचित्र सी प्रवृति है, जीवन को स्वप्नों की अंतहीन लड़ी बना कर रखता है।

लक्ष्य और स्वप्न में अंतर क्या है? सभी स्वप्न लक्ष्य नहीं होते। लेकिन क्या ये सच नहीं है कि सभी लक्ष्य कभी न कभी स्वप्न हुआ करते हैं? और यदि लक्ष्य का उदगम स्वप्न है तो फिर सार्थकता तो स्वप्न की हुई ना? और यदि सार्थकता स्वप्न की है तो फिर स्वप्न से बाहर निकलने की आवश्यकता ही क्या है? मेरा प्रश्न ये है कि यदि मेरे लक्ष्य का उदगम मेरे या किसी और के स्वप्न से हुआ है, तो ऐसे लक्ष्य कि प्राप्ति का अर्थ ही क्या है?

Still in thoughts......