Tuesday, March 8, 2011

व्याकुलता

कभी-२ कुछ अजीब सा करता हूँ, अजीब सा सोचता हूँ जीवन का अर्थ भी तलाशता हूँ, अपने पैदा होने की वजह भी खोजता हूँ फिर सोचता हूँ कि उसे प्यार क्यो करता हूँ? एसा भी क्या जो तुमसे नफरत करता हूँ? क्यो शामिल हूँ उस दौड़ में, जो ख़त्म होने का नाम नही लेती?

जीवन का उद्देश्य अगर मोक्ष है तो फिर ये जीवन क्यो है? सूरज की किरनों में तपन क्यो है? क्या है, क्यो है ये असीमित व्योम? वो कोयल जो हर दिन मन लुभाती है क्या उसे मोक्ष मिलेगा? वो गोरैया जिसने मेरे छज्जे पर घोसला बना लिया, क्या वो भी मोक्ष की तलाश में है? पीछे घर के आगन में इक फूल फिर से खिला है, क्या उसको मोक्ष का अभिप्राय मालूम है?

फिर ये भी सोचता हूँ कि अगर ये जीवन मिथ्या है तो फिर मेरे हिस्से का सच क्या है? सब कुछ छलावा है तो, मेरी बेटी की किलकारी क्या है? और यदि वो भी अर्थहीन है तो फिर कमबख्त अर्थ का अर्थ क्या है??

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