आज पीछे वाले कमरे में कुछ खोजते हुए एक पुरानी कॉपी हाथ लगी। सारे पन्ने पीले पड़ चुके हैं, किनारे किनारे से थोड़े से सिकुड़ भी गए हैं। एक सूखा हुआ फूल भी मिला पन्नों के बीच में | अब ये मत पूछना कि कौन सा फूल है , यार गुलाब तो नहीं लगता। बस इतना याद है कि ये वही फूल है जो तुमने उस शाम को कुरैशी सर की क्लास के बाद मेरी कॉपी में छुपा दिया था| ये वही फूल है ना जो तुमने उस दिन कुरैशी सर के बगीचे से चोरी छुपे तोड़ कर अपने बालों में लगाया था?
ये फूल जैसे अपनी पहचान खो चुका है, लेकिन फिर भी अपने होने के एहसास को जता देना चाहता है| शायद इसको मेरी दाढ़ी के सफ़ेद बाल दिख गए हैं , सोचता होगा कि क्या फायदा.. …| ये एकदम वैसे ही खामोश है जैसे तुम उस दिन थी, बस स्टॉप के कोने में, अपने सीधे सादे दुपट्टे को उलझाते हुए| भिंचे हुए होंठ और कोशिश ये कि आँखें भी न बोलें |
मुझे याद आता है कि कुछ तो समझा रही थी तुम| और मैं अपने पापा के बिना स्टेपनी वाले बजाज स्कूटर का क्लच एडजस्ट कर रहा था| उस वक़्त तो कुछ समझा नहीं, अभी भी बस ठोड़ी पकड़ के ही बैठा हूँ| शायद तभी तुम मुझे बुध्दू कहा करती थी .....
फिर तुम मिली ही नहीं | ना तो बस स्टॉप पे, ना तालाब के किनारे वाले दुर्गा जी के मंदिर में और ना ही फोटोकॉपी वाली दुकान के बाहर | ..... यार मैं तुम्हारे घर भी आया था| तुम्हारे भैया ने बहुत पीटा| ..... तुम थी क्या घर में तब?..... खैर, जाने दो, अब जान के भी क्या करूँगा| अच्छा! तब व्हाट्सप्प होता तो सही रहता ना.....
पता है वो बस स्टॉप अब शिफ्ट हो गया है, मुझे अच्छा नहीं लगा| क्या जरूरत थी पता नहीं, वहाँ बहुत खाली जगह अभी भी है | मंदिर की सीढ़ियों पे, जहाँ तुम बैठा करती थी , याद है? वो ईंट की हुआ करती थी | अब मार्बल लगा गया है वहाँ पे| तुम कभी आना तो देखना, तुमको भी बिलकुल पसंद नहीं आएगा|
एक बात और..... फोटोकॉपी वाली दूकान में अंकल ने अब साइबर कैफ़े खोल लिया है| लेकिन दुकान का पुराना बोर्ड वही कोने में अभी तक फिका पड़ा है| वो भी एकदम सूख गया है इस फूल के जैसे | दोनों एक जैसे दिखते हैं , और मुझे एक जैसे ही देखते हैं| लगता अब कुछ बोल पड़ेंगे.....लेकिन चुप ही रह जाते हैं
क्या उनको भी मालूम कि तुम मुझे “बुध्दू” कहा करती थी?